रविवार, 27 मार्च 2011

जीवन के सफर में राही मिलते हैं बिछड़ जाने को

दुनिया के सबसे मुश्किल सवाल से सामना हो तो दिल चाहता है कि कुछ देर ख़ामोशी अख्तियार कर ली जाए। सोचा जाए। बहुत सोचा जाए और फिर अपनी अक्ल के मुताबिक उस पर बात की जाए। अब कुछ महीने पहले, दिसंबर 2010 में, अपने दौर की मशहूर अदाकारा नलिनी जयवंत इस दुनिया-ए-फानी से कूच कर गईं। अखबारों में ख़बरें भी छपीं। टीवी पर भी कुछ-कुछ जिक्र हुआ। होना ही था। आखि़र को वह नलिनी जयवंत थीं। लेकिन मैं तो सब कुछ सुनता, सब कुछ पढ़ता भी ख़ामोश रहा.. मैं सोच रहा था। मैंने कहा न, सवाल इतना मुश्किल हो तो कुछ वक्त ख़ामोश रहना चाहिए।
कोई यह भी कह सकता है कि इस खबर में सवाल क्या है? हो सकता है कुछ लोगों को इसमें सवाल न दिखे। मुझे दिखता है। और भी बहुत लोगों को दिखता है। और वह सवाल है कि यार आखि़र को इस जगर-मगर फिल्मी दुनिया में ऐसा क्या होता है कि बरसों लोगों को रंगीन सपने देने वाले, पर्दे पर भरपूर उजाले फैलाने वाले ख़ुद अंधेरों में गुम हो जाते हैं। कभी अपनी मर्जी से, कभी अपनी मर्ज़ी के खि़लाफ।

कितना अजीब लगता है कि ज़माने के दिलों पर राज करने वाले महान अभिनेता मर्लिन ब्रांडो, राबर्ट डी नीरो, विख्यात अभिनेत्री ग्रेटा गाबरे ने एक मकाम पर आकर अपने लिए अकेलापन चुना। यहां पर साधना, नंदा, सुचित्रा सेन जैसी अभिनेत्रियां भी ख़ल्वत नशीं हैं। नलिनी जयवंत भी इसी कड़ी का ही एक हिस्सा थीं। बरसों पहले नलिनी जयवंत ने अपने चैम्बूर वाले बंगले में अपनी ही एक दुनिया आबाद कर ली थी। एक ऐसी दुनिया, जिसमें सिवा नलिनी जयवंत के कोई नहीं था। और अगर कोई था तो था माज़ी की ख़ूबसूरत यादों की महक, भरा-पूरा घर और सड़क से उठाकर घर में पाले हुए नलिनी जयवंत के दो कुत्ते।
द टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्टर भारती दुबे ने नलिनी जयवंत की मृत्यु के बाद अनाथ हुए इन दो कुत्तों की हालत पर एक मार्मिक रिपोर्ट लिखी थी। बरसों जिसकी ममता की छांव में गुज़रे थे उसके जाने का उन्हें ख़ूब अहसास था। जिस वक्त ज़माने में किसी को इस निहायत बेआवाज़ मौत की ख़बर तक न थी, इन दो वफादार जानवरों ने रो-रो कर ज़माने को आवाज़ें दीं।
जब किसी रिश्तेदार ने आकर चुपचाप नलिनी जयवंत का शव उठा लिया और घर के दरवाज़े पर ताला लगाया तो रुदन में लगे इन दोनों कुत्तों को भी सड़क पर छोड़ दिया। जब किसी के सिर से अपने का साया उठ जाए तो उसके साथ यही होता है। ख़ासकर जानवर के साथ, जिसके दर्द की कोई दाद-फरयाद नहीं होती।
एक नजर, बस एक नजर
ऐसे ही शुरू हुआ था नलिनी जयवंत का फिल्मी सफर। बस एक नज़र में। किस्सा यूं है कि हिंदी सिनेमा के शुरुआती दौर के निर्माता-निदेशकों में से एक थे जनाब चमनलाल देसाई। उनके एक बेटे थे वीरेंद्र देसाई। उनकी एक कंपनी थी नेशनल स्टूडियोज़। एक दिन दोनों बाप-बेटे फिल्म देखने पहुंचे सिनेमाघर। शो के दौरान दोनों की नज़र एक लड़की पर पड़ी, जो तमाम भीड़ में भी अपनी दमक बिखेर रही थी। यह नलिनी जयवंत थी जिसकी उम्र उस समय बमुश्किल 13-14 बरस की ही थी। देसाई बाप-बेटे की जोड़ी ने दिल ही दिल इस लड़की को अपनी अगली फिल्म की हीरोइन चुन लिया और ख़्यालों में खो गए। फिल्म कब ख़त्म हो गई और कब वह लड़की अपने परिवार के साथ ग़ायब हो गई, इसकी ख़बर तक इन बाप-बेटे को न हुई।
लेकिन होनी तो होनी है, सो हुई। एक दिन वीरेंद्र देसाई अभिनेत्री शोभना समर्थ से मिलने उनके घर पहुंचे तो देखा कि नलिनी वहां मौजूद है। ज़ाहिर है उसकी बाछें खिल गईं। असल में शोभना समर्थ, जिन्हें बाद में नूतन, तनूजा की मां और काजोल की नानी के रूप में ज्यादा जाना गया, नलिनी उनके मामा की बेटी थी।
देसाई ने इस बार बिना देर किए फिल्म का प्रस्ताव रख दिया। नलिनी के लिए तो यह मन मांगी मुराद पूरी होने जैसा था। डर था तो सिर्फ पिता का, जो फिल्मों के काफी सख्त विरोधी थे। लेकिन देसाई ने उन्हें मना लिया। इस मानने के पीछे एक बड़ा कारण था पैसा। उस समय जयवंत परिवार की स्थिति काफी खस्ता थी। रहने के लिए भी उन्हें अपने एक रिश्तेदार के छोटे-से फ्लैट में मिला आश्रय था।
सो यह पहली फिल्म थी ‘राधिका’ जो 1941 में रिलीज़ हुई थी। वीरेंद्र देसाई के निर्देशन में बनी फिल्म के अन्य कलाकार थे हरीश, ज्योति, कन्हैयालाल, भुड़ो आडवानी। संगीत था अशोक घोष का। इस फिल्म के 10 में से 7 गीतों में नलिनी जयवंत की आवाज़ थी।
इसके बाद तो इसी एक साल में महबूब ख़ान के निर्देशन में एक फिल्म रिलीज़ हुई ‘बहन’। इस फिल्म में नलिनी के साथ प्रमुख भूमिका में थे शेख मुख्तार और साथ में थी नन्हीं-सी मीना कुमारी, जो बेबी मीना के नाम से इस फिल्म में एक बाल कलाकार थीं। इस फिल्म में भी संगीतकार अनिल बिस्वास ने नलिनी से 4 गीत गवाए थे। इन चार गीतों में से वजाहत मिजऱ्ा का लिखा एक गीत था ‘नहीं खाते हैं भैया मेरे पान’ जो काफी लोकप्रिय हुआ था। और इसी साल फिर से वीरेंद्र देसाई के ही निर्देशन में बनी फिल्म ‘निदरेष’ भी आई, जिसमें मुकेश साहब नायक की भूमिका में थे। फिल्म में मुकेश की आवाज़ में कुल जमा 3 गीत थे जिनमें एक सोलो ‘दिल ही बुझा हुआ हो तो फस्ले बहार क्या’ था और बाकी दो नलिनी जयवंत के साथ युगल गीत थे, जबकि नलिनी के 3 सोलो गीत थे।
अपने एक संस्मरण में नलिनी जयवंत कहती हैं - ‘..मैं जब बमुश्किल छह-सात साल की थी तभी आल इंडिया रेडियो पर नए-नए शुरू हुए बच्चों के प्रोग्राम में भाग लेने लगी थी। इसी कार्यक्रम में हुई संगीत प्रतियोगिता में मैंने गायन के लिए प्रथम पुरस्कार जीता था।’
नलिनी जयवंत अपनी पहली ही फिल्म से ‘सितारा’ घोषित कर दी गई। उस समय नलिनी फ्रॉक और दो चोटी के साथ स्कूल में पढ़ रही थी। उम्र थी 15 साल। ‘आंख मिचौली’ (42) ने उसे आसमान पर बिठा दिया।
फिल्मों में सफलता तो मिल गई, लेकिन उसी के साथ नलिनी पर फिदा वीरेंद्र देसाई से प्यार भी हो गया। शादी भी हो गई। इस मामले को उस दौर के लेखक ने इस तरह बयान किया है: ‘जब ये हंसती है तो मालूम होता है कि जंगल की ताज़गी में जान पड़ गई और नौ-शगुफ्ता कलियां फूल बनकर रुखसारों की सूरत में तब्दील हो गई हैं। नलिनी जयवंत ने ‘आंख मिचौली’ खेलते-खेलते मिस्टर वीरेंद्र देसाई से ‘दिल मिचौली’ खेलना शुरू कर दिया और यह खेल अब बाकायदा शादी की कंपनी से फिल्माया जाकर जिंदगी के पर्दे पर दिखलाया जा रहा है।’
लेकिन शादी की यह फिल्म बहुत दिन नहीं चल पाई। तलाक़ भी हो गया। फिर दूसरी शादी की अपने एक साथी कलाकार प्रभू दयाल से। 1950 के दशक में नलिनी जयवंत ने एक बार फिर धमाके के साथ अशोक कुमार के साथ फिल्म ‘समाधि’ और ‘संग्राम’ से नई ऊंचाई हासिल की। हालांकि 1948 की फिल्म ‘अनोखा प्यार’ में दिलीप कुमार और नरगिस के मुकाबिल जिस अंदाज़ में काम किया उसकी ज़बर्दस्त तारीफ हो चुकी थी, लेकिन इन दो फिल्मों ने उसके स्टारडम में चार चांद लगा दिए। फिल्म ‘समाधि में ‘गोरे-गोरे ओ बांके छोरे’ पर कुलदीप कौर के साथ उसका नाच अब तक याद किया जाता है।
अशोक कुमार के साथ जोड़ी कामयाब हुई तो दोनो के रोमांस की चर्चा भी शुरू हो गई। और तो और अशोक कुमार ने अपने परिवार से अलग चैम्बूर के यूनियन पार्क इलाके में नलिनी जयवंत के सामने बंगला भी ले लिया, जहां वे जिंदगी के आखि़री दिनों में भी बने रहे और वहीं प्राण त्यागे। इस जोड़ी ने 1952 में ‘काफिला’, ‘नौबहार’ और ‘सलोनी’ और 1957 में ‘मिस्टर एक्स’ और ‘शेरू’ जैसी फिल्में कीं। दिलीप कुमार के साथ, जिन्होंने नलिनी जयवंत को ‘सबसे बड़ी अदाकारा’ का दर्जा दिया, उन्होंने ‘अनोखा प्यार’ के अलावा ‘शिकस्त’(1953) और देव आनंद के साथ ‘राही’ (52), ‘मुनीमजी’ (55) और ‘काला पानी’(58) जैसी कामयाब फिल्में कीं।
‘काला पानी’ में किशोरी बाई वाली भूमिका के लिए तो नलिनी जयवंत को सर्वश्रेष्ठ सह-अभिनेत्री का पुरस्कार भी मिला। निदेशक रमेश सहगल की दो फिल्मों ‘शिकस्त’ और ‘रेलवे प्लेटफॉर्म’ (55) की भूमिकाओं के लिए भी नलिनी जयवंत को याद किया जाता है। ‘काला पानी’ के बाद उन्होंने फिल्मों में काम लगभग बंद कर दिया। दो फिल्में ‘बॉम्बे रेसकोर्स’ (1965) और ‘नास्तिक’ (1983) इसका अपवाद हैं। ये दोनों फिल्में भी रिश्तों के दबाव में ही कीं। ‘नास्तिक’ में उन्होंने अमिताभ बच्चन की मां की भूमिका निभाई थी।
इस फिल्म के बाद भी वह कभी-कभार घर की ज़रूरत की चीज़ें ख़रीदने बाज़ार जाती थीं। अशोक कुमार से भी एक अरसे तक जीवंत संपर्क बना रहा, लेकिन बाद में कुछ ऐसा हुआ जिसके बारे में किसी को कोई ख़बर नहीं। नलिनी जयवंत ने ख़ुद को घर में ही कैद कर लिया। घर के सामने ही रह रहे अशोक कुमार तक से आखि़र में मिलना छोड़ दिया।
दिसंबर में जब ख़बर आई तो यह आई कि तीन दिन पहले नलिनी जयवंत का देहांत हो गया। मोहल्ले के लोगों को भी ख़बर तब हुई जब एक चौकीदार ने उस घर से एक शव को गाड़ी में ले जाते एक व्यक्ति को देखा। बाद में संदीप जयवंत नामक व्यक्ति का बयान आया कि वह नलिनी जी का भतीजा है और उसने नलिनी जी की ही इच्छा अनुसार चुपचाप उनका दाह-संस्कार कर दिया है।
और
नलिनी जयवंत पर फिल्माए गए गीतों की पड़ताल करें तो एक से एक नगीने मिलते हैं। अपनी पसंद से कुछ मिसालंे दूं। ‘ठंडी हवाएं, लहरा के आएं’ (नौजवान 51), ‘कारे बदरा तू न जा, न जा’ (शिकस्त 53), ‘आ कि अब आता नहीं दिल को क़रार/राह तकते थक गया है इंतज़ार’ (महबूबा 54), ‘तेरे फूलों से भी प्यार, तेरे कांटों से भी प्यार’(नास्तिक 54), घायल हिरनिया मैं बन-बन डोलूं’ (मुनीमजी 55), ‘हाए जिया रोए’ (मिलन-58)।
और हां, सबसे ज्यादा ज़रूरी और आज की बात के लिए सबसे ज्यादा मौज़ू फिल्म ‘मुनीमजी’ का गीत - ‘जीवन के सफर में राही, मिलते हैं बिछड़ जाने को/और दे जाते हैं यादें, तन्हाई में तड़पाने को।’

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